Saturday, August 16, 2014

पाकिस्तान छोड़कर हिंदुस्तान आने के अपने फैसले पर फख्र

नई पीढ़ी के लोगों को भले ही आजादी विरासत में मिली है, लेकिन जिन लोगों ने अपनी जान पर खेलकर आजादी पाई है उनकी आंखों आज भले ही बूढ़ी हो गई हैं पर उनमें आजादी के अनमोल होने का अहसास आज भी चमकता है। आजादी का अहसास 68 साल पहले के तमाम दुखों को पल भर में काफूर कर देता है। आजादी के ऐसे ही चश्मदीद हैं उल्हासनगर में रहने वाले 82 बरस के प्रताप राय आहूजा और 78 बरस की उनकी पत्नी अंजना आहूजा। आजादी की 68वीं सालगिरह पर जब उनकी मुलाकात हुई तो नेहरु से लेकर नरेंद्र मोदी तक हिंदुस्तान की तरक्की पर इस बुजुर्ग दंपति को पाकिस्तान छोड़कर हिंदुस्तान आने के अपने फैसले पर फख्र होता है।
प्रताप आहूजा कहते हैं जब पाकिस्तान से हिंदुस्तान आया था तब बच्चा था। जो उम्र खेलने की होती है उस उम्र में कत्लेआम देखा। खुन्नस, खुराफात और खूरेंजी देखी। अपना सब कुछ छोड़कर शरणार्थी होने का मतलब क्या होता है इसका अहसास बचपन में ही हो गया। आहूजा बताते है कि उनके पिता पुलिस में थे, बावजूद इसके 1947 की तंग माहौल में पाकिस्तान से निकलकर हिंदुस्तान पहुंचना किसी डरावने सपने की तरह था। आंखों से नींद गायब थी, बस एक ही आस थी कि जल्दी से जल्दी हिंदुस्तान पहुंचे। सांस में सांस तब आई जब हमे लेकर करांची से निकला पानी का जहाज गुजरात के ओखा बंदरगाह पर रुका। घर, ज्यादाद, संपत्ति सब कुछ पीछे छूट गया था। सबके हाथ खाली थे। दो वक्त के खाने की जुगाड़ ही सबसे बड़ी प्राथमिकता थी। इसी जुगाड़ सरकार द्वारा उल्हासनगर में बनाए गए शरणार्थी शिविर में पूरी हुई।
आज इतना असरा गुजर गया, कभी पीछे मुड़ के देखने की न जरूरत पड़ी न फुर्सत ही मिली, लेकिन हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों मुल्कों की तरक्की देखकर आज लगता है कि उस समय हमारे बुजुर्गों ने पाकिस्तान छोड़ने का जो फैसला लिया था वह सही था।

No comments:

Post a Comment