Friday, August 30, 2013

महिलाओं को बिना वजह हर प्रॉडक्ट का रैपर बनाना न तो सैद्धांतिक रुप से सही है और न सामाजिक तौर पर.

महिलाओं के साथ घटने वाले हर अपराध के बाद फिल्मों, टीवी और विज्ञापनों में परोसा जाने वाली सामग्री निशाने पर होती है। समाज का बड़ा तबका तबका मानता है कि इससे लोगों की खासकर युवाओं की मानसिकता पर फर्क पड़ता है। हालांकि हर बार यह विषय एक लंबी और अंतहीन बहस का मुद्दा बनकर रह जाता है। शक्ति मिल गैंगरेप कांड के बाद यह मुद्दा एक बार फिर चौपाल पर है। बाजार के अपने तर्क हैं, पर दम इस बात में भी है कि महिलाओं को बिना वजह हर प्रॉडक्ट का रैपर बनाना न तो सैद्धांतिक रुप से सही है और न सामाजिक तौर पर...। 
एक वक्त था, जब दूरदर्शन पर एक कंडोम के ऐड का विज्ञापन आता था। जब चैनल बदलने के भी ऑप्शन कम थे। हालांकि उसमें अश्लीलता नहीं थी, पर आज के विज्ञापनों में पुरुष-महिलाओं के अंतरंग संबंधों को खुलेआम दिखाया जाता है। न के बराबर कपड़ों में महिलाएं सिर्फ कंडोम के ऐड पर ही नहीं, डियो और बाइक के ऐड पर भी दिखाई देती हैं। हर रेप की घटना के बाद ऐसी बहस होती है कि फिल्में और ऐड भी इन घटनाओं के लिए अप्रत्यक्ष भूमिका निभाते हैं। महालक्ष्मी के शक्ति मिल कंपाउंड में हुए गैंगरेप ने इस कुकर्म के पीछे के कारणों पर सोचने को मजबूर कर दिया है। आखिर इतने हंगामे के बावजूद क्यों रेप जैसे घिनौने कृत्य पर रोक नहीं लग पा रही है। इस सवाल ने कानून और लोगों की सोच को शंका के कठघरे में खड़ा कर दिया है। 16 दिसंबर के दिल्ली गैंगरेप के बाद समाज के एक तबके में बहस उठी कि वर्तमान में बन रहीं फिल्मों और विज्ञापन में महिलाओं को 'ऑब्जेक्ट' के तौर पर पेश किया जाना रेप के लिए कुछ हद तक जिम्मेदार है। हालांकि, यह बहस किसी नतीजे पर पहुंचे बिना ही दब गई। आज टेलिविजन पर दिखाया जाने वाला हर दूसरा विज्ञापन 'अश्लीलता' और 'नग्नता' की गवाही देता है। इन चीजों का बार-बार दिखाया जाना कहीं न कहीं सेक्स के प्रति उकसाने वाला साबित हो रहा है। इन चीजों का पुरुषों की मानसिकता पर काफी प्रभाव पड़ता है।
 
सीमेंट, कार, शेविंग क्रीम, फ्रिज, हर ऐड में महिलाएं
 गौर करने वाली बात यह है कि पिछले कुछ सालों से हर विज्ञापन में जरूरत नहीं पड़ने पर भी महिला के अंग प्रदर्शन का सहारा लिया जा रहा है। पहले एक्का-दुक्का विज्ञापनों में यह दिखाई देता था, लेकिन अब ऐसा लगता है कि जब तक औरत का बदन नहीं दिखाया जाएगा, कोई सामान बिकेगा ही नहीं। सीमेंट, कार, शेविंग क्रीम, बाइक, डियो, यहां तक कि मर्दों के अंडरगार्मेंट्स तक के ऐड में महिलाएं होती हैं, जिनका इन ऐड्स का कोई लेना-देना नहीं है। कुछ समय पहले तक एक सीमेंट कंपनी ने अपना विज्ञापन बिकिनी पहने पानी से बाहर आती एक लड़की को दिखाता हुआ बनाया। 'विश्वास है इसमें कुछ खास है' इस टैग लाइन के अलावा विज्ञापन में सिर्फ देह प्रदर्शन किया गया है। सीमेंट के विज्ञापन में बिकिनी पहने महिला को दिखाने का तर्क समक्ष नहीं आता। इसी तरह कार और बाइक के तकरीबन सभी विज्ञापन लड़कियों को पटाने से जोड़कर दिखाया जाता है। फलां बाइक या कार खरीदिए लड़की आपसे इंप्रेस होगी। इसी तरह शेविंग क्रीम, फ्रिज से लेकर चॉकलेट्स तक के विज्ञापन सेक्स और अश्लीलता के सहारे बेचे जाते हैं। हालांकि, अश्लील और भड़काऊ कहे जानेवाले विज्ञापनों के खिलाफ शिकायत करने के लिए प्राधिकरण बने हैं, लेकिन व्यवहारिक तौर शिकायत करने वालों की संख्या नगण्य हैं। 
बड़े
 बड़े बैनर , होर्डिंग्स पर दिखता अंग प्रदर्शन महानगर मंुबई में अक्सर बड़े  बड़े बैनर या होर्डिंग्स पर महिलाओं के अंडरगार्मेंट्स के विज्ञापन छाए होते हैं।अंडरगार्मेंट्स के विज्ञापन दिखाना गलत नहीं है , लेकिन जिस तरीके से यह प्रदर्शित किया जाता है वहआपत्तिजनक है। इसी तरह फिल्मों के पोस्टर को भी ' सेक्सी ' और उकसाने वाला बनाया जाता है। फिल्मनिर्माता इसी के सहारे अपनी पब्लिसिटी करते हैं। आए दिन कई मामलों में राजनीतिक पार्टियां इनके खिलाफविरोध प्रदर्शन करती रहती हैं। कई बार ये प्रदर्शन इतने उग्र हो जाते हैं कि संबंधित फिल्म या विज्ञापन कंपनी केपोस्टर जलाए जाते हैं और फिल्म नहीं चलने की धमकी दी जाती है। हालांकि , यह सब ऊपरी तौर पर होता हैइस पूरे मसले को कभी गंभीरता से नहीं लिया जाता और  ही संबंधित प्रशासन कोई ठोस कदम उठाता है। कुछमहीने पहले ही मैनीक्वीन ( महिलाओं के अंडरगार्मेंट्स पहने पुतले ) को लेकर खूब बहस हुई। बीजेपी की एकनगरसेविका ने दुकान के बाहर लगे मैनीक्वीन्स को हटाने की मांग की थी। नगरसेविका का तर्क था कि दुकान केबाहर लगे मैनीक्वीन से पुरुषों की मानसिकता विकृत होती है और रेप जैसी हरकत की संभावना बढ़ती है।हालांकि यह मांग बहस और चर्चा के साथ ही बिना किसी परिणाम के ही समाप्त हो गई। 
सेंसर
 बोर्ड का काम फिल्मों में दिखाई जा रही हिंसा , अंग प्रदर्शन , गाली  गलौज आदि को अलग करना होताहै। बोर्ड की जिम्मा यह है कि सिर्फ उन्हीं चीजों को दिखाया जाए , जो भारतीय दर्शकों के अनुरूप हों। हालांकि ,सेंसर बोर्ड पर पिछले कुछ सालों से प्रभावशाली निर्माता , निर्देशक , अभिनेता आदि की फिल्मों पर पक्षपातपूर्णरवैया अपनाने के आरोप लगते रहे हैं। ताजा उदाहरण अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम पर बनी फिल्म ' डी डे ' काहै। फिल्म को सेक्स और हिंसा के सीन के चलते सेंसर बोर्ड ने पहले दो बार '  ' सर्टिफिकेट दिया था , लेकिनबाद में इसे ' यू /  ' सर्टिफिकेट दे दिया गया। 
मैं
 मानता हूं कि महिलाओं को फिल्मों या ऐड में ऑब्जेक्ट की तरह इस्तेमाल नहीं होना चाहिए , लेकिन फिल्मेंया ऐड रेप जैसे अपराधों के लिए पूरी तरह जिम्मेदार नहीं हैं। यह अपराध पुरुषवादी सोच का परिणाम है। दूसरे, देश की 50 फीसदी आबादी ऐसी है , जहां आज भी बराबरी का अधिकार महिलाओं को नहीं मिला है। क्याआज भी बहुओं - बेटियों को दुत्कारते नहीं हैं। खाने , पहनने , पढ़ने और जॉब तक में उनसे बराबरी का व्यवहारनहीं किया जाता है। सबसे पहले तो सोच बदलने की जरूरत है। 
यूरोप
 और अमेरिका में भी ऐड और फिल्में बनती हैं। वहां तो हमारे यहां से भी ज्यादा खुलापन है। फिर वहां क्योंबसों कारों में रेप नहीं होते ? वहां क्यों सड़क चलते छेड़खानी नहीं होती ? यह सब सोच का फर्क है।वहांमहिलाओं  पुरुषों में समानता है। हम अपनी महान संस्कृति और सभ्यता की दुहाई देते हैं , पर कहां गई हमारीसंस्कृति ? पहले हमें खुद अपने गिरेबान में झांककर देखना होगा कि हम महिलाओं के साथ अपने - अपने घरों मेंकैसा व्यवहार कर रहे हैं। 
फिल्मों
 और ऐड का सवाल है , तो रिमोट आपके हाथ में होता है। बदल दीजिए चैनल। कोई जबरदस्ती तो हैनहीं। दरअसल , जो पढ़े  लिखे और महत्वाकांक्षी लोग हैं , उन्हें  तो ऐड देखने की फुर्सत है ,  टीवी देखनेकी। जिनका आधार ही बिगड़ा हुआ है , वहीं ऐसे अपराध होते हैं। जिन्होंने पढ़ा - लिखा नहीं है। जिनके कुछसपने नहीं है। जो नौकरी तक नहीं करना चाहते। वे ही गु्रप बनाकर , दारू की बोतल लेकर बैठते हैं औरअपराधों को अंजाम देते हैं। शिक्षा बहुत जरूरी है। 
वैसे
 , हमारे समाज को दोहरा रवैया भी है। पावरफुल लोग अपने पावर का गलत इस्तेमाल भी करते हैं। एकतरफ मुंबई  दिल्ली के रेप केस पर विरोध होता है , तो दूसरी तरफ आसाराम बापू को बचाने कुछ लोग समर्थनमें  जाते हैं। भई , कम से कम जांच तो होने दो। इंसानियत के लिए यह सब बहुत घातक है। 

यह
 बात सच है कि महिलाओं का फिल्मों और ऐड में व्यापारिक इस्तेमाल होता है। इसका समाज पर भी असरपड़ता है , लेकिन यह पूरा सच भी नहीं है। पूरी तरह से दोष नहीं दिया जा सकता। देखिए , सीता को जब रावणने उठाया था या द्रोपदी का चीरहरण हुआ था , उस वक्त तो ऐड नहीं बनते थे। यह अपराध पुरुष मानसिकता कानतीजा है। सबसे पहले तो यह सोचना और समझना होगा कि महिलाओं भी इनसान हैं और उन्हें बराबरी का हकतथा इज्जत दें। अपने बच्चों को सिखाएं कि उन्हें कैसे महिलाओं की इज्जत करनी है। 
फिर
 फिल्म और ऐड बनाने वालों में सबका अपना  अपना नजरिया होता है। हम फिल्ममेकर को अपनासामाजिक दायित्व समझना चाहिए। दूसरी तरफ सेंसरशिप और साइट्स को बैन करने की मांग उठती है। इससेकोई फर्क नहीं पड़ेगा , क्योंकि यह विकृति अंदर से आती है। ज्यादातर तो ऐसे अपराधी हैं , जिनकी पहुंच सेइंटरनेट दूर होता है। 
महिलाओं
 को अपनी सोच बदलनी होगी। किसी बलात्कार पीडि़ता को समाज जीना मुश्किल करने वाली औरतेंही होती हैं। पीडि़ता पर उंगली उठाने और ताने देने वाली औरतें ज्यादा होती हैं। कोई उसे कलंकित कहता है , तोकोई चरित्र पर शक करने लगता है। इसके अलावा महिलाओं को यौन अपराधों के खिलाफ पुलिस के पास भीजाना चाहिए। कई महिलाएं तो पुलिस के पास जाती भी नहीं हैं , सिर्फ शर्मिंदगी के डर से।